कश्मीर क्या सचमुच मसला है ?

90 के दशक में "स्काई  इज द लीमिट " का फार्मूला देकर  पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने कश्मीर मसले के हल के लिए शानदार पहल की थी। अटल बिहारी वाजपेयी ने एक कदम आगे बढ़कर बातचीत को इंसानियत के दायरे में लाने की कोशिश की।  संवैधानिक दायरे से आगे बढ़ने का जोखिम लेकर अटल जी ने कश्मीर में  विश्वास का वातावरण बनाया तो  पचास साल बाद  फ्री एंड फेयर चुनाव के संकल्प को कश्मीर में जमीन पर उतारकर लोगों में लोकतंत्र के प्रति भरोसा पैदा किया। लेकिन आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने  अगर कश्मीर के   दायरे को आगे बढाकर ,जम्मू ,लदाख और पाकिस्तान मकबूजा कश्मीर के मसले को रेखांकित करने की कोशिश की है तो माना जायेगा की उन्होंने इतिहास से सबक ली है।

कश्मीर के कई जिलों में लगातार ३५ दिनों के बंद -हड़ताल और कर्फ्यू के बाद यह सवाल पूछा जाना लाजिमी है कि  कौन चाहता है कश्मीर मसले का हल ?  एक रोमांटिक आतंकवादी बुरहान वानी की मौत से कश्मीर सचमुच खफा है ? या फिर कश्मीरियत की रिवायत वाली वादी में आई एस के तथाकथित खिलाफत के तई नॉज़वानो में बढ़ी उत्सुकता ,इस विरोध को धारदार बना दिया है ?. ऐसी चिंता पीडीपी सांसद मुज़्ज़फ़र बेग कर  रहे हैं।  या  फिर पाकिसातनी हुकूमत और उनकी हुर्रियत  के  डूबती नाव को किनारा मिल गया है ?

. १९४८ से लेकर आजतक कश्मीर मसले को लेकर भारत -पाकिस्तान के बीच दर्जनों  मर्तबा बातचीत हो चुकी है लेकिन मामला जस का तस है . अक्सर इस बातचित में हमारे विवेकशील रहनुमाओ ने पाया कम है ,खोया ज्यादा है  तो क्या  इस दौर में सचमुच डिस्कोर्स बदलने की जरुरत है ? जैसा कि कश्मीर स्टडी ग्रुप के अरुण कुमार जी बताते है  ?
 आखिर वे कौन लोग है जो कश्मीर को  मसला मान रहे है ?  बात साफ़ है जिनका इस मसले से निजी या सियासी फ़ायदा है उन्होंने  हर दौर मे इस मसले को जिदा रखने की कोशिश की  है और वे काफी हद तक कामयाब भी हुए है.. जम्मू कश्मीर की बड़ी आवादी ने कभी इसे मसला नहीं माना। .अगर यह बाकई आम लोगों के लिए बड़ा मसला होता तो हर चुनाव में 75 -80 फीसद पोलिंग नहीं होती।   . कश्मीर के सबसे बड़े अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी से मैंने यही सवाल पूछा था ,उनका जवाब था क्या कश्मीर की हालत ७० के दशक मे ऐसी थी ?. गिलानी साहब खुद दो बार अस्सेम्ब्ली का चुनाव जीत कर एम् एल ए बने थे। .  आतंकवादी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के सरबरा शलाहुद्दीन ने खुद असेम्बली  चुनाव मे अपना सिक्का आजमाया था . ये अलग बात थी कि तत्कालीन कांग्रेस -एन सी हुकूमतों ने सैयद शलाहुद्दीन को चुनाव जीतने नहीं दिया  था और पाकिस्तान ने  उसे बन्दूक पकड़ा  दिया था। ..

 हमें याद रखना चाहिए कि ये वही कश्मीर के लोग थे जिन्होंने १९४८ मे पाकिस्तान की  फौज को खदेड़ने मे भारतीय फौज के साथ कंधे से कन्धा मिलकर जंग जीती थी . हजारों लोगों ने पाकिस्तान के इस आक्रमण मे अपनी कुर्बानिया  दी थी . लेकिन ऐसा क्या हुआ कि बाद के दौर मे कुछ गुमराह नौजवानों ने  जीवे जीवे पाकिस्तान का नारा लगाने लगा  ? पाकिस्तान में फ़ौज ने सत्ता पर काविज होने के लिए कश्मीर को चावी के तौर पर इस्तेमाल किया तो . पाकिस्तान की पैरवी करने वाले कश्मीरी अलगाववादी लीडरों पर दो दशको  में मानो धन वर्षा हुई . कल तक गाँव मे रहने वाले इन लीडरों ने श्रीनगर मे आलिशान महल बनाया .इनके बच्चो ने उची तालीम ली . कई के बच्चे सरकारी मह्कामे मे ऊँचे दर्जे के पद पर  कायम  है .खुद शलाहुद्दीन के तीन बच्चे स्थानीय सरकारी सेवा में है।
पिछले वर्षों मे कश्मीर मे विकास के नाम पर, पुनर्वास के नाम पर  भारत सरकार की ओर से अरबो रूपये के पकेज मिले है .लेकिन इन पैसों की हकीकत कश्मीर जा कर ही पता चलता है. यानी लूट में छूट को कश्मीर मसले से .जोड़ दिया गया है।  .. मैंने  सैयद अली शाह  गिलानी से एक बार पूछा था कि आप भारत सरकार से बातचीत के लिए तैयार क्यों नहीं हुए।  . उनका जवाब था जिन्होंने ने भारत सरकार से बात की है उन्होंने क्या हासिल किया है . .. यानी राजनैतिक प्रक्रिया यहाँ हासिल करने जुडी है , यही वजह है कि कश्मीर में अलगाववादियों के २४ धरो का कोई सर्वमान्य नेता नहीं है न ही पथरबाजो का । . सबके अपने निजी स्वार्थ है।  कश्मीर मे एक  बड़े ओहदे से सेवा निवृत अधिकारी से मैंने पूछा , आखिर इस मसले का क्या हल है ?,उनका जवाब था कश्मीर मसले का हल कोई नहीं चाहता है , कश्मीर मसले का हल सिर्फ वो माँ चाहती है जिनके  बच्चे .सियासी साजिश के शिकार  हुए  हैं। ..

टिप्पणियाँ

Brajesh srivastava ने कहा…
लाजवाब सर,सही विश्लेषण कोई नही चाहता कश्मीर का हल.....

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